apna sach

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आत्मसात



ये काले स्याह बादल
अब बरसते ,तब बरसते
आसमानी छत को झुकाते हुए
हमें प्रकृति से
इस कदर जोड़ जाते है
कि
हम अन्दर तक कही रिक्त
हो जाते है
और विस्मित मन
कल्पनाओ में
बहुत दूर तक फैल जाता है
असीमित व
अद्वितीय बूंदों के साथ ।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

डायरी

पन्ने पलटता गया वह
एक के बाद एक ,
रुक जाती थी नजर
किसी लिखे पन्ने पर ,
लेकिन उसे एक पृष्ठ
की खोज थी
जो उसे बैचैन कर दिया था
पलटता गया वह सावधानी पूर्वक
अंतिम पृष्ठ तक ,
अपना नाम
पुन: शुरुआत हुई
एक बार फिर अन्त हुआ
नहीं मिला वह ,
अबकी बार मिलेगा
वह पन्ना
चिन्ह अंकित कर देगा उस पन्ने पर
जब भी चाहे
मिल जाये वह ,
लेकिन ऐसे तो हर पन्ने की
जरुरत हो जाती है ,
तो क्या सभी पन्ने पर
निशान लगाना होगा ,
हाँ ,एक पन्ने पर कालम बनायेगा
लिख देगा शीर्षक ,एक शब्द
नीचे रहेंगे दिन व मास
विवरण रहेगा उन पलों का ,
लेकिन यदि ऐसा हुआ तो
कुछ पन्ने नहीं खुल पायेंगे
कुछ अजीब नहीं लगेगा उसे
क्योकि वह उन पन्नो को
पढ़ना नहीं चाहता
लेकिन खुल जाती थी
स्वयं वे पन्ने ,
पढ़ लेता था वह
उन्हें सरसरी निगाह से
खुद की नजरो से
नजरे बचा के ,
वह उन पन्नो को भूल जाता था कभी
हाथ स्वयं रुक जाते थे
उन अक्षरों पर
पढ़ लेता तभी वह अनजाने ही ,
वह उन्हें नहीं पढ़ना चाहता था
क्योकि उसे डर था मन में
कही शब्दों से विरक्ति न हो जाये
यदि हो गया ऐसा कभी
रूह चली जायेगी कही
डायरी रह जायेगी यही ।