apna sach

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

बीते पल

कहाँ खो गया
क्या हो गया
वो जहाँ ,कहाँ पर सो गया
मै ढूढता रहा उसे
वो उम्र में छुपता रहा।

उसे कैनवस पर न उतार सका
कही बातो में न पा सका
वो जुबां से परे रहा
वो दृष्टि से लोप रहा
मै टटोलता रहा उसे
वह अहसास से परे रहा।

मै गम भी न मना सका
न वो उम्मीद में आ सका
वो कही था, तो यही रहा
अब गया कहाँ ,जो कही नहीं
मै सोचता रहा उसे
वो समझ से परे रहा ।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

विरोध -३

कब तक शांत रहोगे ,
तुम्हारे विरोध का
ये मूक तरीका व
तुम्हारे बढ़ते जख्म ,
उन्हें बनाता जा रहा है
बहरा व अँधा ,
तुम दोनों ही पहुचते
जा रहे हो ,
असंवेदनशीलता के पराकाष्ठा पर ,
संघर्ष से परे ।

नया कुछ नहीं

सागर में तूफान ,
लहरों में उफान ,
एक सीमा तक ,
फिर सब शांत ।
समय था गुजर गया ,
कही कुछ भी नहीं हुआ।

सागर के उस पार ,
फिर धूप खिली ,निखरी
रात हुआ ,चाँद निकला
समय इसी तरह गुजरता रहा ,
सब कुछ होता रहा
फिर भी अलग कुछ भी नहीं हुआ ।

अतल गहराई भी छलका ,
अनंत ऊचाई भी पसरा ,
खुली ताबूत बंद हुई ,
फिर भी नया कुछ भी नहीं हुआ ।

क्योकि
मालूम है ,ये होता है
आशा है ,यही होगा
कल्पना है ,ये हो सकता है
तो नया क्या होगा ,
कुछ नहीं ।

हकीकत से परे

सहारे के लिए साथ देने को
तत्पर रहती है कल्पनाएँ ,
बुझते दीये को जलाये
रहती है आशाएं ,
कुछ भी नहीं रहता है
साथ में जब
नीदं में स्वत: ही आ जाते है सपने ,


किसी होनी ,अनहोनी के बीच
उभरती है जब आंशका ,
मन में उभर आती है प्राथनाएँ
सृष्टि के एक एकांत में
मनुष्य के अंर्तमन का वार्तालाप
और इनको पूर्ण करने के लिए
ईश्वर का जन्म ,

घने जंगल में
भूखे शेर को सुनायी देती है जब आहट ,
उस आहट को ढूढने व पकड़ने के लिए ,
जाते शेर को
देखकर नहीं लगता कि ,
हम हकीकत कि दुनिया में
जी रहे है ।

अनुभव

हमारे अनुभव ,
हर कदम पर
हमको ही चिढाते ,
जितना सोचते
उससे ज्यादा ही मिल जाते ,
जैसे कभी
चोट को सहलाते हुए
ये सोचते कि
एक दिन तो ठीक हो जायेगा यह ,
दूसरे ही पल
उससे कही बड़ी चोट लग जाती ,
और हम वही
थोड़े और अनुभवी हो जाते ।

बाढ़

हारती हुई जिंदगी
पानी में ,
जागती हुई जिंदगी
पानी में ,
बेहाल है जिंदगी
पानी में ,
हैरान है जिंदगी
पानी में ,
प्यास हुई जिंदगी
पानी में,
उदास हुई जिंदगी
पानी में ,
संघर्ष है जिंदगी
पानी में ,
जीवट है जिंदगी
पानी में ,
सब एक हुए
पानी में ,
सब एक बहे
पानी में ।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

स्वयं में

बहुत गहरा कुआँ ,
हर रस्सी छोटी ,
कुछ रस्सी उसके तल को नापी ,
उसके पानी का अंश
बाहर निकालने का प्रयास ,
छपाक ,
टूट गयी या छूट गयी ,
कहा नहीं जा सकता ,
मै जब कुआँ में झाँका ,
जल तल पर मेरा अक्श,
मन हुआ ,
कूद जाऊ उसमें ,
स्वयं में ।

सृष्टि का रहस्य

दोनों चुप थे ,उनकी परछाइया चुप थी ,
शांत था पूरा वातावरण ,
बस एक पानी की बूंद थी
जो टिप -टिप करके वातावरण को
एक लय दे रही थी ,
दोनों को लग रहा था
उनकी सारी शक्ति निचुड़ कर
इन बूंदों की शक्ल में ,
धरती पर पड़े पत्थर को
व्यर्थ ही भिगो रही है ,

एक परछाई उठी ,हटा दिया उस पत्थर को ,
अब बूंदे धरती को भिगो रही थी ,
वह परछाई जिसने छू लिया था उन बूंदों को ,
जाग उठी थी उसकी प्यास ,
लेकिन क्या इन बूंदों से ही
उसकी प्यास मिट सकती है ?

एक दूसरे से अनजान वे दोनों
जिनमे से एक ने तृषा को जान लिया था ,
दूसरी परछाई
जो एकटक निहार रहा था उन बूंदों को
जो अब गिरने वाली थी ,
उसे लग रहा था वह डूब ही जायेगा
अगर यह गिरी तो ,
तभी पहली परछाई ने रोक लिया उस बूंद को ,
जिह्वा पर उस बूंद को फैल जाने दिया ,
तृषा को कुछ क्षण के लिए परे धकेल दिया उसने ,
अब परछाइया करीब थी ,
एक तृषा से ऊबर चुकी थी और दूसरा डूबने से बच चुका था
अब हर बूंद के साथ ,पास पास हो रहे थे
लेकिन आखिर कब तक ,

क्या आखिरी बूंद तक संभव है यह सम्बन्ध
टूट गया इन बूंदों की लड़ियों की तरह ,
असंभव जान पड़ता है यह टूटन ,
हर बूंद की जरूरत, एक को होगी अपनी तृषा के लिए ,
औरयही जरुरत दूसरे की जिंदगी है ,
यही जरुरत पास लायी है उनको ,
लेकिन क्या हर बूंद में तृषा जगाने व किसी को डूबाने की
वास्तविक क्षमता है
या यह केवल भ्रम है ,
यह भ्रम भी क्या एक
रहस्य है सृष्टी का ।




उन बूंदों को

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

सुबह

शाम कितनी भी सुहानी हो
वो रात होने का घोतकहै ।
भोर कितना भी धुंधला हो
वो दिन होने की निशानी है ।


शाम कितनी भी चहल पहल हो
वो तन्हाई के करीब है ।
भोर कितना भी स्वच्छ हो
वो दुनियादारी की पहल है ।

घर

घर
जहाँ जाने में झिझकते नहीं हम ;
ही कोई संकोच ।
घर
जहाँ आने के लिए आमंत्रण
की जरुरत नहीं होती ।
घर
संसार में पनाह लेने की एक जगह ,
महकती खुशबू ,जानी पहचानी
सम्बन्धो का घेरा ,
एक सुकून ।
घर
मेरे न होने के खालीपन को
एक इंतजार से भरता हुआ ,
मेरी जरुरत
मेरा घर ।

मूक दर्शक

दरक रहा था
क्षण -प्रतिक्षण
दीवार मेरे मन की ,
मै व्यथित
चुपचाप
रक्त में शांत प्रवाह लिए
क्षीण दर्शक बना रहा
एक काव्य रचना
हाथ में लिए ।

अंह;

मै हूँ क्या
जैसे शरीर के ऊपर सिर
वैसे सिर के ऊपर 'मै '
कभी हल्का व
कभी भारी ।