apna sach

शनिवार, 27 मार्च 2010

साझा

टीसती हुई घावो को
सहलाते हुए
वे हमेशा ऐसी बाते
करना पसंद करते
जो उन्हें मौजूदा हालात से
उबार दे व खुद को वे भुला सके
बातो में
किस्से होते
दादा ,परदादा की बाते
फिल्मे होती
मजाक व गाने के बोल होते
राजनीति ,भष्ट्राचार
खेल ,महंगाई
सामाजिक समस्याओ की चर्चा में
जब कभी दर्द की टीस उभरती
तब तक
वे खुद को अन्य से जोड़ लिए होते
यह दुःख अपना ही नहीं है
अन्य लोग भी हालात के मारे हुए है
यह बात
कही उनके मन को सहला ही जाते .

एक आस में

जिन्दगी भर ,एक आस में
काफी कुछ सह गए वो
कब वक्त बदलेगा
यह प्रश्न रहता
अब वक्त बदलेगा
यह दिलासा होती
उम्र के छोटे छोटे टुकड़ो में
संतुष्ट होते गए वो
दहलीज पार करते तो
हर कदम पर हमसाये होते
घर के अन्दर
उदास जिंदगी को खूटी पर टांग रहे होते
पसीने को तो हवा सुखा जाती
और प्यास को कुए का पानी
पर दिन भर घुमड़ते मन को
शाम में दिल से बहलाते रहे वो .

बुधवार, 24 मार्च 2010

थोड़े दिन की उसकी अवधि

थोड़े दिन की उसकी अवधि
प्यार भरे ,कुछ गम भरे
कुछ ऐसा भी जो ,कम ही पड़े
कुछ उसने जिया ,कुछ इसने जिया
मिलती ही रही ,सिमटी ही रही
थोड़े दिन की उसकी अवधि

कुछ स्वप्न दिखे ,कुछ व्यंग्य लगे
कुछ रात रहे ,कुछ शांत रहे
एक उम्र गयी ,जो व्यर्थ रही
एक शाम घिरी जो शुष्क रही
शुष्क रही ,आंसू की नमी
जो व्यर्थ बही ,एक अर्थ लिए
थोड़े दिन की उसकी अवधि

वह सब भूला जो सुखद रहा
वह याद रहे जो कष्ट लगे
वही ख्वाब बने जो हाथ लगे
वो स्वप्न रहे जो दिल से मिले
बस वही दिखा जो नीरस थे
आडम्बर से थे सजे धजे
थोड़े दिन की उसकी अवधि

अब क्या होगा जो नहीं हुआ
जो होगा उसकी चाह नहीं
ये चाह रही ,बचपन की गली
वो शाम रही जो रिमझिम थी कभी
थोड़े दिन की उसकी अवधि


तुच्छ है अब तूफान व सागर भी
नभ जो अन्दर तक है फैला
बहुत कुछ है सिमटा
यहाँ से वहां तक है फैला
इस कोने से उस कोने तक की आशाएं
गीत गुनगुनाते हुए चुप है
थोड़े दिन की उसकी अवधि ।