apna sach

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

सार्थकता

जब मै बैचैन हो जाती हूँ
अपने आसपास के आवरण से
शोरगुल के बीच
शांति के लिए ह्रदय को
उदास जम्हाई लेते देख
यथार्थ के धरातल पर कल्पना
के उखड़ते पाव को सम्हालते हुए
बाजारी व्यवस्था को वितृष्णा
से नकारते हुए
खोजने लग जाती हूँ कुछ
जो उबार सके इस उदास
बोझिल व निरर्थक क्षण से
तब
माँ पकड़ा जाती है
चाय का प्याला
और मै ढूढने लग जाती हूँ
उसमे
रिश्तो की मिठास
वह चाय का प्याला
जिसे माँ थमा जाती है
अपनी बेटी के व्यग्र चहरे
को देख
कैफीन के सहारे सब कुछ भूल
पुन:
संसार का एक दिव्य दर्शन करने को
उतार जाती है मेरे गले के नीचे
और मै महसूस करने
लगती हूँ
उस जज्बात की सार्थकता
उस कप की सार्थकता
और एक सार्थक जीवन
के लिए
उस निरर्थक क्षण को
भूलने लगती हूँ

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

अतीत

शांत था
और उस शांति में
कंकड़ फेकना
हलचल पैदा कर
उभार दिया वृत्त दर वृत्त
उभरती व ख़त्म होती
कल्पनाओ का घेरा
अंतत: धीरे धीरे ख़त्म
पर आज भी
अंतर्मन के तलहटी में
काई से ढके
सुरक्षित है वो फेके गए पत्थर
जो आंदोलित कर गए थे
मेरे अंतर्मन को
कुछ क्षणों व दिनों के लिए