apna sach

रविवार, 25 अप्रैल 2010

शाम से भोर तक
दूर से पास तक
एक आवाज आयी कांपकर
उस कम्पन में अहसास था
एक बिंदु की शक्ल में
अपनी तुच्छता को प्रकट कर
वो चली उधर
जिधर बिखराव था
उस बिखराव में कुछ
लय मिला
लय में कुछ नया नहीं
न वो तीव्र थी
न वो शुष्क थी
बस था यही कि दृश्य था
दृश्य भी अजीब था
वह बस एक भराव था
जो एक शून्य को उत्पन्न कर
एक शून्य से मिला गया


(यथार्थ से ही जन्मी एक वह कल्पना जिसमे अहसास व दृश्य होता है जो ह्रदय को एक लय देती है . एक आस व निरंतर बहने वाली लय जिसे ह्रदय न चाहते हुए भी समय के साथ बिसर जाता है और यही है शून्य का शून्य से मिलना )