apna sach

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आत्मसात



ये काले स्याह बादल
अब बरसते ,तब बरसते
आसमानी छत को झुकाते हुए
हमें प्रकृति से
इस कदर जोड़ जाते है
कि
हम अन्दर तक कही रिक्त
हो जाते है
और विस्मित मन
कल्पनाओ में
बहुत दूर तक फैल जाता है
असीमित व
अद्वितीय बूंदों के साथ ।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

डायरी

पन्ने पलटता गया वह
एक के बाद एक ,
रुक जाती थी नजर
किसी लिखे पन्ने पर ,
लेकिन उसे एक पृष्ठ
की खोज थी
जो उसे बैचैन कर दिया था
पलटता गया वह सावधानी पूर्वक
अंतिम पृष्ठ तक ,
अपना नाम
पुन: शुरुआत हुई
एक बार फिर अन्त हुआ
नहीं मिला वह ,
अबकी बार मिलेगा
वह पन्ना
चिन्ह अंकित कर देगा उस पन्ने पर
जब भी चाहे
मिल जाये वह ,
लेकिन ऐसे तो हर पन्ने की
जरुरत हो जाती है ,
तो क्या सभी पन्ने पर
निशान लगाना होगा ,
हाँ ,एक पन्ने पर कालम बनायेगा
लिख देगा शीर्षक ,एक शब्द
नीचे रहेंगे दिन व मास
विवरण रहेगा उन पलों का ,
लेकिन यदि ऐसा हुआ तो
कुछ पन्ने नहीं खुल पायेंगे
कुछ अजीब नहीं लगेगा उसे
क्योकि वह उन पन्नो को
पढ़ना नहीं चाहता
लेकिन खुल जाती थी
स्वयं वे पन्ने ,
पढ़ लेता था वह
उन्हें सरसरी निगाह से
खुद की नजरो से
नजरे बचा के ,
वह उन पन्नो को भूल जाता था कभी
हाथ स्वयं रुक जाते थे
उन अक्षरों पर
पढ़ लेता तभी वह अनजाने ही ,
वह उन्हें नहीं पढ़ना चाहता था
क्योकि उसे डर था मन में
कही शब्दों से विरक्ति न हो जाये
यदि हो गया ऐसा कभी
रूह चली जायेगी कही
डायरी रह जायेगी यही ।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

परिचय


तुम मेरा परिचय जानना चाहते हो
क्या कहूँ कि मै एक पत्ता हूँ
कभी हरा भरा और
कभी सूख कर गिरता हुआ ,
कभी लहराता हुआ और
कभी मूल से दूर जाता हुआ

क्या कहूँ कि मै एक जड़ हूँ
गहराइयो की ओर अग्रसर
मिटटी से मिला हुआ
कभी धरातल पकडे
और कभी उखड़ा हुआ
सार तत्व की खोज में लीन
एक ऊचाई को पकड़ा हुआ

क्या कहूँ कि मै एक तना हूँ
कभी झुककर नतमस्तक
कभी टूटकर गिरता हुआ
एक ऊचाई पाकर भी
बाधाओ में हिलाता हुआ
कभी बोझ लिए अरमानो का
कभी तत्वहीन लगता हुआ
मजबूत आलम्ब बन कर भी
शाखाओ में बटा हुआ

क्या कहूँ कि मै एक फूल हूँ
कभी खिलता हुआ और
कभी मुरझाता हुआ
कभी माध्यम बना नवीन जीवन का
कभी जीता जीवन खोता हुआ
कभी सुगन्धित व आकर्षित
कभी दिखावा करता हुआ
अल्प जीवन पाकर भी
जीवन को अर्थ देता हुआ
कभी बिखरा मै बहारो से
कभी काटों में खिलता हुआ

बुधवार, 2 जून 2010

जब वे बाते करते है

जब एक कह रहा होता है
और दूसरा सुन रहा होता है
तो ये उनकी आपबीती
रहती है
एक का अनुभव
दूसरे का भुगता रहा होता है
एक का डर
दूसरे की आशंका होती है
एक का सपना
दूसरे की आशा होती है
उनके बातचीत का दायरा
उन्ही तक सिमटा होता है
हम तुम से बात कर रहे
दोनों शख्स
जब तीसरे की बात करते है
तो निश्चय ही
वह आदमी
उनका मालिक रहता है
और वे
उनके मजदूर ।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

शाम से भोर तक
दूर से पास तक
एक आवाज आयी कांपकर
उस कम्पन में अहसास था
एक बिंदु की शक्ल में
अपनी तुच्छता को प्रकट कर
वो चली उधर
जिधर बिखराव था
उस बिखराव में कुछ
लय मिला
लय में कुछ नया नहीं
न वो तीव्र थी
न वो शुष्क थी
बस था यही कि दृश्य था
दृश्य भी अजीब था
वह बस एक भराव था
जो एक शून्य को उत्पन्न कर
एक शून्य से मिला गया


(यथार्थ से ही जन्मी एक वह कल्पना जिसमे अहसास व दृश्य होता है जो ह्रदय को एक लय देती है . एक आस व निरंतर बहने वाली लय जिसे ह्रदय न चाहते हुए भी समय के साथ बिसर जाता है और यही है शून्य का शून्य से मिलना )

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

सार्थकता

जब मै बैचैन हो जाती हूँ
अपने आसपास के आवरण से
शोरगुल के बीच
शांति के लिए ह्रदय को
उदास जम्हाई लेते देख
यथार्थ के धरातल पर कल्पना
के उखड़ते पाव को सम्हालते हुए
बाजारी व्यवस्था को वितृष्णा
से नकारते हुए
खोजने लग जाती हूँ कुछ
जो उबार सके इस उदास
बोझिल व निरर्थक क्षण से
तब
माँ पकड़ा जाती है
चाय का प्याला
और मै ढूढने लग जाती हूँ
उसमे
रिश्तो की मिठास
वह चाय का प्याला
जिसे माँ थमा जाती है
अपनी बेटी के व्यग्र चहरे
को देख
कैफीन के सहारे सब कुछ भूल
पुन:
संसार का एक दिव्य दर्शन करने को
उतार जाती है मेरे गले के नीचे
और मै महसूस करने
लगती हूँ
उस जज्बात की सार्थकता
उस कप की सार्थकता
और एक सार्थक जीवन
के लिए
उस निरर्थक क्षण को
भूलने लगती हूँ

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

अतीत

शांत था
और उस शांति में
कंकड़ फेकना
हलचल पैदा कर
उभार दिया वृत्त दर वृत्त
उभरती व ख़त्म होती
कल्पनाओ का घेरा
अंतत: धीरे धीरे ख़त्म
पर आज भी
अंतर्मन के तलहटी में
काई से ढके
सुरक्षित है वो फेके गए पत्थर
जो आंदोलित कर गए थे
मेरे अंतर्मन को
कुछ क्षणों व दिनों के लिए

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

प्रतिफल

धान की फूटती बालियो
को देखते हुए
उसकी जड़ो में सरकते
पानी की तरह
हम अपने कर्मो के
प्रतिफलो का
हमेशा विस्तार देखते है

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

अब नही

अब हम नहीं जाते
देवदरी ,राजदरी
वही जहाँ जंगल
अपनी हरी भरी हरीतिमा में
पक्षियों के कलरव में
पानी के झरनों में
कलकल बहती नदी के लहरों में
हमारे मन मस्तिष्क को
प्रकृति के साथ जोड़ते थे
हम मन्त्र मुग्ध हो के
देवदरी ,राजदरी या लखनियादरी में
चट्टानों पर बैठे
प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते
निश्छल मन को मानवीय संवेदनाओ
से ओतप्रोत पाते
इन्ही जंगलो से हमें ,जानवरों के बीच
मानवीयता का बोध होता

पर अब हम नहीं जाते
वहां डरते है जाने से
क्योकि
अब वह नक्सल प्रभावित भूभाग है
शतरंज के बिसात में खुद को एक
मोहरे की तरह इस्तेमाल से बचाना चाहते है
दहशत फैलाने के लिए
अपनी मौत से डरते है
भय ,आतंक में हक़ की लड़ाई
और इसमे एक निर्दोष की जान
पक्ष ,विपक्ष की दुविधा से बचना चाहते है

और यह जंगल जो
न तो फुलवा की आबरू को ठेकेदारों व
वन रक्षको से नहीं बचा सका
और न ही हमारे जवानो को
नक्सलियों से
अपनी सघन व विहड़ आकार में
चुपचाप देखता रहा
गुनाहगारो को आगोश में लिए

अब इसकी भयावहता से
डर लगता है
नीरव व सुनसान पड़ी
ख़ामोशी से डर लगता है
वहां फैली पाशविकता
से डर लगता है
खुद को बचाने के लिए
अब हम वहा नहीं जाते

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

जीवन से विपरीत

मौत आयी तो
वजहें सामने आने लगी
कैसे कैसे व कब ,क्यों हुए
दुर्घटना से
हत्या से
आत्महत्या से
बीमारी से
बलात्कार से
मार से


मौत आयी तो
आंकड़े बोलने लगे
कहा कहा
कितने कितने गए
सुनामी में
भूकंप में
तूफान में
बाढ़ में
युद्ध में

मौत आयी तो
सरहदे बोलने लगी
कौन कौन
कहाँ कहाँ से थे
विदेश से
देश से
प्रदेश से

मौत का कोई रंग नहीं होता
कोई रूप नहीं होता
कोई भेद नहीं होता
कोई पता नहीं होता
बस कहे तो
जिन्दगी ही चली जाती है
यूँ ही ,सब छोड़कर

रविवार, 4 अप्रैल 2010

संतुष्टि

थोड़े से शब्द
थोड़े से अर्थ
थोड़े से संवाद
थोडा सा विश्वाश
यत्र -तत्र बिखरे हुए
जब तब उन्हें लेते हम
यदा कदा ही संभाल पाते है
उन्हें हम
और
यदा कदा ही मिल पाती है
संतुष्टि
थोड़ी सी

पक्षियो के शोर में -गौरैया



(२० मार्च २०१० को गौरैया दिवस मनाया गया । यह समाचार फुदक कर हमारे सामने आया कि उनकी संख्या कम होती जा रही है । )

नन्ही सी ,फुदकती हुई
यहाँ वहा दानो को जुगती
बचपन से ही जिन्हें हम
अपने आस पास पाते है
जिनकी आवाजो से
कभी हम खीझ भी जाते
आनायास ही कही से
चली आती थी वो
वरामदे में ,कही खाट पर
कभी कभी आईने में
खुद को ही चोंच मारती
उनकी मौजूदगी हमें सहज लगती
वैसे नहीं जैसे नीलकंठ को
देखते ही हम सजग हो जाते
साथ साथ रहते ,अहसास तक नहीं हुआ कि
वो नहीं दिखती ,अब हमेशा ही
यदा कदा दिखते रहने पर
हमें ज्ञात ही नहीं हुआ कि
वो दूर होती जा रही है हमसे
और हमलोग प्रगति की ओर अग्रसर
अपने अतीत से बेपरवाह
अपने घर से
अपनो से
दूर होते जा रहे है
उन्हें नकारते हुए
गौरैया गवाह है इसकी ।

शनिवार, 27 मार्च 2010

साझा

टीसती हुई घावो को
सहलाते हुए
वे हमेशा ऐसी बाते
करना पसंद करते
जो उन्हें मौजूदा हालात से
उबार दे व खुद को वे भुला सके
बातो में
किस्से होते
दादा ,परदादा की बाते
फिल्मे होती
मजाक व गाने के बोल होते
राजनीति ,भष्ट्राचार
खेल ,महंगाई
सामाजिक समस्याओ की चर्चा में
जब कभी दर्द की टीस उभरती
तब तक
वे खुद को अन्य से जोड़ लिए होते
यह दुःख अपना ही नहीं है
अन्य लोग भी हालात के मारे हुए है
यह बात
कही उनके मन को सहला ही जाते .

एक आस में

जिन्दगी भर ,एक आस में
काफी कुछ सह गए वो
कब वक्त बदलेगा
यह प्रश्न रहता
अब वक्त बदलेगा
यह दिलासा होती
उम्र के छोटे छोटे टुकड़ो में
संतुष्ट होते गए वो
दहलीज पार करते तो
हर कदम पर हमसाये होते
घर के अन्दर
उदास जिंदगी को खूटी पर टांग रहे होते
पसीने को तो हवा सुखा जाती
और प्यास को कुए का पानी
पर दिन भर घुमड़ते मन को
शाम में दिल से बहलाते रहे वो .

बुधवार, 24 मार्च 2010

थोड़े दिन की उसकी अवधि

थोड़े दिन की उसकी अवधि
प्यार भरे ,कुछ गम भरे
कुछ ऐसा भी जो ,कम ही पड़े
कुछ उसने जिया ,कुछ इसने जिया
मिलती ही रही ,सिमटी ही रही
थोड़े दिन की उसकी अवधि

कुछ स्वप्न दिखे ,कुछ व्यंग्य लगे
कुछ रात रहे ,कुछ शांत रहे
एक उम्र गयी ,जो व्यर्थ रही
एक शाम घिरी जो शुष्क रही
शुष्क रही ,आंसू की नमी
जो व्यर्थ बही ,एक अर्थ लिए
थोड़े दिन की उसकी अवधि

वह सब भूला जो सुखद रहा
वह याद रहे जो कष्ट लगे
वही ख्वाब बने जो हाथ लगे
वो स्वप्न रहे जो दिल से मिले
बस वही दिखा जो नीरस थे
आडम्बर से थे सजे धजे
थोड़े दिन की उसकी अवधि

अब क्या होगा जो नहीं हुआ
जो होगा उसकी चाह नहीं
ये चाह रही ,बचपन की गली
वो शाम रही जो रिमझिम थी कभी
थोड़े दिन की उसकी अवधि


तुच्छ है अब तूफान व सागर भी
नभ जो अन्दर तक है फैला
बहुत कुछ है सिमटा
यहाँ से वहां तक है फैला
इस कोने से उस कोने तक की आशाएं
गीत गुनगुनाते हुए चुप है
थोड़े दिन की उसकी अवधि ।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

कब तक

राजनीति जब तुम्हारे बातो
में होती है तो
श्रेष्ठ रहती है
राजनीति जब तुम्हारे कर्मो
में जाती है तो
भ्रष्ट हो जाती है
बातो के पुलिंदे में जब तब
करवट बदलते अर्थ
कभी बैशाखी बन जाते है
तो कभी अस्त्र

तुम जब दल बदलते हो
तो राजनीति नए अध्याय
में जाती है
तुम नहीं बदलते
तुम्हारी सोच नहीं बदलती
बस बदलते है
तुम्हारे अस्त्र व तुम्हारे ढाल

तुम सरकार बनाते हो
तुम सरकार चलाते हो
राजनीति ko हांक कर
संसद में बिठाते हो
तुम वहा उठते बैठते
मजाक करते
कभी हल्ला मचाते
कभी अभद्र होते हो
और हम कही उसका
भुगतान करते तो
राजनीति वही शर्मसार हो
जाती है

सोमवार, 8 मार्च 2010

नारी

तुम ,तुम हो
एक सहृदय
अकल्पित
व एक खुबसूरत परिकल्पना
ह्रदय की वाणी
एक अछूता अहसास
एक गंभीर ज्योत्सना

तुम ,तुम हो
एक सजीवता
सत्य व
ज्ञान के समीप
एक लय ,एक लक्ष्य
व एक मार्ग के करीब


तुम ,तुम हो
एक सशक्त पहचान
विश्वास की प्रतिक
अटल ,अविचलित
एक मजबूत अस्तित्व
तुम ,तुम हो

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

समय

सुन समय
मुझसे एक ख्याल
एक सोच जो सच है
सच है और गुमराह भी
आसपास का आबोहवा भी
रिक्तियों के उमस में
अपने वजूद से बेपरवाह भी
न निकटता थी
न शिकायत
न जज्बात और न
पैरो के निशान
फिर भी अहसास था
वक्त है मेरे करीब
अपनी खुशबू ,अपनी छुअन
अपने सभी पहलुओ के साथ
बुने हुए ख्वाब
और
चल रहे हकीकत के संग
जैसे बूंद बूंद जल को
अजुल में भर
पूरा पी लिया हो एक साथ
तृप्ति के लिए
मेरे करीब है पड़ा ,अलसाया सा
अपनी अलबेली चाल में
मेरा बहुत कुछ समेटे
अस्त व्यस्त
मेरी तरफ देखो ,वक्त
आओ तुम्हे सँवार दूँ

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

स्त्री

तुम खुश हो ?
अरे हाँ ,तुम खुश क्यों नहीं होगी
आईने में तुमने खुद को
आज जी भर निहारा है
रक्षा बंधन पर भाई ने
तुम्हे बहुत याद किया है
पति ने नयी साड़ी
तुम्हे लाकर दी है
त्यौहार पर तुमने
घर को खूब संवार दी है
बेटे को मेडिकल में
दाखिला मिल गया है
बेटी अपने ससुराल में
बहुत खुश है
बहू ने तुम्हे एक बेटी की
तरह प्यार दिया है

तुमने
घर के एक एक कोने को
हर एक व्यक्ति को
अपने जिंदगी का
हर एक पल समर्पित किये

तुम खुश क्यों नहीं होगी

तुमने अपने दुःख को
अपने सुख को
अपने पुराने बक्से में डालती गयी
जिसमे काफी कुछ तुम्हारा कभी
और अभी भी
बहुत निजी है

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

अंत अभी नहीं

(कभी कभी हमलोग परिस्थितियों से लड़ने के बजाय खुद को उसके हवाले कर देते है। अपना अंत ,
अपने विचार व अपने व्यक्तित्व का अंत
तक
सोचने लगते है
पर कहते है -
जहाँ कुछ भी हो
वहां
दो शब्द हमेशा
हमारे साथ रहते है)


इस असहनीय दर्द में

मै अपना अंत क्यों सोचूँ

जरा जी कर देखे

इस दर्द का अंत है कहाँ





बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

विद्रोह -

शब्द ,शब्द ही रहे
भावनाए बदल गयी
शब्द बेजान हुए
अर्थ सब खो गए
अपने अन्दर इतना विद्रोह भरा है
यह चोट करने पर मालूम हुआ ।

कुछ रूमानी है

तुम्हारे बहुत पास
गुजर कर देखा
तुम्हारी उस झुकती
नजर को देखा
तुम्हारी बोलती खामोश
जुबां को देखा
नजरे मिली तो
नजर हटा के देखा
दिखा तो सब कुछ
मगर सब 'तुम्हारे ' सिवा

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हाँ उस टूटती हुई शाखा
की ही बात है
जो कल तक हवा के झोको
से आनंदित होती थी
आज उन्ही से
अपने टूटन में
हो रही बढ़त से
नाराज भी है
व हताश भी ।

कुछ रूमानी है

मुझे याद है वो पल
वो तेरी नजर
वो अजीब कहर
वो ओठ तेरे
एक अल्फाज लहर
मुझे याद नहीं
वो क्या कहे
मुझे बस दिखा
एक कमजोर पल
मैंने महसूस की
यह सत्य भी
तुने मुझ पर भी
कुछ गौर की
तेरे हावभाव कुछ
कहे नहीं
मुझे भा गया
तेरी ये पहल .........

धर्म

गुम्बद की तरह ऊची एक आवाज

दूर तक गूंज गयी

सभी ने सुना

धीरे धीरे आवाजधीमे धीमे ही सही

गीले उपले में लगी आग की तरह

धुएं की शक्ल में

दूर तक छा गयी

धुंध में कुछ स्पष्ट दिखना था

फिर भी लोग उस आवाज के

विषय में बात करते

अपनी आवाज को ही उस आवाज

का नाम देते

कुछ को अपने कानो पर विश्वास

कुछ को अपनी जबान पर

आश्चर्य सब अलग होते

वो आवाज क्या कह गयी

आज भी एक रहस्य है

पर वह आवाज गूंजी थी

ये सभी कहतें हैं

अब भी लोग उन आवाजों को

गौर से सुनते है

जो ऊची होती है

जो विस्तृत फैलती है

और शायद भ्रमित होते है कि

उन्होंने उस आवाज को सुन लिया

जो कभी गूंजा था और

आज भी धुंध में है

वे इसे धर्म की संज्ञा देते है


मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

स्वप्न

चलते -चलते ही हमारे अनुभव ही
हमारी जिंदगी बनते है
हमारे अहसास व आशाओं के बीच ही
स्वप्न पलते है
कुछ कड़वी यादें साथ ही रहती है
कुछ अजीब अनुभव हमारे बीच पलती है
स्वप्नों के बीच वास्तविकता
व वास्तविकता में स्वप्न का उदभव
न हम तोड़ पाते है और न ही छोड़ पाते है

दांपत्य

याद है वे बातें जो
पगडंडी से होती हुयी
सड़क
सड़क से होती हुयी
शहर
शहर से होती हुयी
ताजमहल तक पहुची थी
ताजमहल अच्छा था
अत: बातें भी अच्छी रही
सुना था चांदनी में ताजमहल
खुबसूरत लगता है
हम लोगो की बाते भी
इंतजार में रही
चांदनी की
चांदनी झिलमिल ,स्वप्नलोक का
अहसास करती जब
बिझी धरती पर
हमारे कदमो से लेकर दूर अम्बर तक
तब हमारी बाते भी ठहर गयी थी
मुस्कराती हुयी खामोश थी
खामोश थी तब भी बातें
जब हम लौट रहे थे
अपने घर के चूल्हे के पास
आग के किनारे
तुष्टि के समीप
उसके बाद
बातें हमारे इर्द गिर्द ही रही
चूल्हे के पास से होती हुयी
द्वार पर आये हुए
हर शख्स से बात करती हुयी

यादें

रुकती हुई
एक संवेदना
एक भाव
अब गिरती ,तब गिरती
डाल से अलग होती हुयी

एक पत्ती की तरह
सुने वियावन जंगल में
आखिर बिछ गयी धरती पर
धूप होगी
हवा बहेगी
वह आवाज करेगी
तब तक रहेगी संगीतमय
जब तक वह भीग न जाये
अंतत:
खामोश ,किन्ही तहों में दबी
आखिरकार संवेदनाशून्य हो ही जायेगी


सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

उजाले

रात की अनछुई सायों में
सब कुछ खोया खोया था
जब सुबह चौक कर जागा तो
थे तुम बदले थे हम बदले

परिवर्तन

रोज की तरह
जैसे खाना ,पहनना
रोज की तरह
सोना ,जागना
रोज की तरह
दिन गुजारना ,
इन्ही रोज में
सिमटती उम्र
बढ़ते अनुभव ,
झड़ते बाल ,मुरझते जिस्म ,
रोज में बदल जाता है
सबका विचार ,
कल, आज में अंतर ,
चौबीस घंटे का अंतर ,
वो भी व्यतीत होते है
रोज की तरह

माँ

वह जैसे घुप अँधेरे में
ढूढ़ लेती है दरवाजे ,
खिड़कियो के परदे हटा
कुछ रोशनी को ढूढ़ती है ,
अँधेरे को टटोलती ,
अँधेरे में चलती ,
अँधेरे में ही मिल जाते है उसे
माचिस दिए ,
खुद को एकाग्र कर
जगाती है जैसे दीये कि लौ ,
संयत और फिर सजग
समेटती है सबको अपने आँचल में ,
अपने मीठी बातो में ,
सुकून भरे पलों को
जैसे ले आती है वो अधेरो में भी ,
हम वैसे क्यों नहीं कर पाते
उजालो में भी

जिंदगी

जिंदगी हमेशा जीती हुई
नहीं
होती ,
दर्द में हमेशा उदास
सी नहीं होती ,
कभी लड़खड़ाती है तो
भुजाए सहारे का प्रयास
करती है ,
कभी थककर ,कभी यूँ ही
आराम करती है ,
कभी उम्र ,कभी वक्त
कभी मिजाज का नाम लेकर
जिंदगी यूँ ही कई रंग
बिखेर जाती है

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

बीते पल

कहाँ खो गया
क्या हो गया
वो जहाँ ,कहाँ पर सो गया
मै ढूढता रहा उसे
वो उम्र में छुपता रहा।

उसे कैनवस पर न उतार सका
कही बातो में न पा सका
वो जुबां से परे रहा
वो दृष्टि से लोप रहा
मै टटोलता रहा उसे
वह अहसास से परे रहा।

मै गम भी न मना सका
न वो उम्मीद में आ सका
वो कही था, तो यही रहा
अब गया कहाँ ,जो कही नहीं
मै सोचता रहा उसे
वो समझ से परे रहा ।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

विरोध -३

कब तक शांत रहोगे ,
तुम्हारे विरोध का
ये मूक तरीका व
तुम्हारे बढ़ते जख्म ,
उन्हें बनाता जा रहा है
बहरा व अँधा ,
तुम दोनों ही पहुचते
जा रहे हो ,
असंवेदनशीलता के पराकाष्ठा पर ,
संघर्ष से परे ।

नया कुछ नहीं

सागर में तूफान ,
लहरों में उफान ,
एक सीमा तक ,
फिर सब शांत ।
समय था गुजर गया ,
कही कुछ भी नहीं हुआ।

सागर के उस पार ,
फिर धूप खिली ,निखरी
रात हुआ ,चाँद निकला
समय इसी तरह गुजरता रहा ,
सब कुछ होता रहा
फिर भी अलग कुछ भी नहीं हुआ ।

अतल गहराई भी छलका ,
अनंत ऊचाई भी पसरा ,
खुली ताबूत बंद हुई ,
फिर भी नया कुछ भी नहीं हुआ ।

क्योकि
मालूम है ,ये होता है
आशा है ,यही होगा
कल्पना है ,ये हो सकता है
तो नया क्या होगा ,
कुछ नहीं ।

हकीकत से परे

सहारे के लिए साथ देने को
तत्पर रहती है कल्पनाएँ ,
बुझते दीये को जलाये
रहती है आशाएं ,
कुछ भी नहीं रहता है
साथ में जब
नीदं में स्वत: ही आ जाते है सपने ,


किसी होनी ,अनहोनी के बीच
उभरती है जब आंशका ,
मन में उभर आती है प्राथनाएँ
सृष्टि के एक एकांत में
मनुष्य के अंर्तमन का वार्तालाप
और इनको पूर्ण करने के लिए
ईश्वर का जन्म ,

घने जंगल में
भूखे शेर को सुनायी देती है जब आहट ,
उस आहट को ढूढने व पकड़ने के लिए ,
जाते शेर को
देखकर नहीं लगता कि ,
हम हकीकत कि दुनिया में
जी रहे है ।

अनुभव

हमारे अनुभव ,
हर कदम पर
हमको ही चिढाते ,
जितना सोचते
उससे ज्यादा ही मिल जाते ,
जैसे कभी
चोट को सहलाते हुए
ये सोचते कि
एक दिन तो ठीक हो जायेगा यह ,
दूसरे ही पल
उससे कही बड़ी चोट लग जाती ,
और हम वही
थोड़े और अनुभवी हो जाते ।

बाढ़

हारती हुई जिंदगी
पानी में ,
जागती हुई जिंदगी
पानी में ,
बेहाल है जिंदगी
पानी में ,
हैरान है जिंदगी
पानी में ,
प्यास हुई जिंदगी
पानी में,
उदास हुई जिंदगी
पानी में ,
संघर्ष है जिंदगी
पानी में ,
जीवट है जिंदगी
पानी में ,
सब एक हुए
पानी में ,
सब एक बहे
पानी में ।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

स्वयं में

बहुत गहरा कुआँ ,
हर रस्सी छोटी ,
कुछ रस्सी उसके तल को नापी ,
उसके पानी का अंश
बाहर निकालने का प्रयास ,
छपाक ,
टूट गयी या छूट गयी ,
कहा नहीं जा सकता ,
मै जब कुआँ में झाँका ,
जल तल पर मेरा अक्श,
मन हुआ ,
कूद जाऊ उसमें ,
स्वयं में ।

सृष्टि का रहस्य

दोनों चुप थे ,उनकी परछाइया चुप थी ,
शांत था पूरा वातावरण ,
बस एक पानी की बूंद थी
जो टिप -टिप करके वातावरण को
एक लय दे रही थी ,
दोनों को लग रहा था
उनकी सारी शक्ति निचुड़ कर
इन बूंदों की शक्ल में ,
धरती पर पड़े पत्थर को
व्यर्थ ही भिगो रही है ,

एक परछाई उठी ,हटा दिया उस पत्थर को ,
अब बूंदे धरती को भिगो रही थी ,
वह परछाई जिसने छू लिया था उन बूंदों को ,
जाग उठी थी उसकी प्यास ,
लेकिन क्या इन बूंदों से ही
उसकी प्यास मिट सकती है ?

एक दूसरे से अनजान वे दोनों
जिनमे से एक ने तृषा को जान लिया था ,
दूसरी परछाई
जो एकटक निहार रहा था उन बूंदों को
जो अब गिरने वाली थी ,
उसे लग रहा था वह डूब ही जायेगा
अगर यह गिरी तो ,
तभी पहली परछाई ने रोक लिया उस बूंद को ,
जिह्वा पर उस बूंद को फैल जाने दिया ,
तृषा को कुछ क्षण के लिए परे धकेल दिया उसने ,
अब परछाइया करीब थी ,
एक तृषा से ऊबर चुकी थी और दूसरा डूबने से बच चुका था
अब हर बूंद के साथ ,पास पास हो रहे थे
लेकिन आखिर कब तक ,

क्या आखिरी बूंद तक संभव है यह सम्बन्ध
टूट गया इन बूंदों की लड़ियों की तरह ,
असंभव जान पड़ता है यह टूटन ,
हर बूंद की जरूरत, एक को होगी अपनी तृषा के लिए ,
औरयही जरुरत दूसरे की जिंदगी है ,
यही जरुरत पास लायी है उनको ,
लेकिन क्या हर बूंद में तृषा जगाने व किसी को डूबाने की
वास्तविक क्षमता है
या यह केवल भ्रम है ,
यह भ्रम भी क्या एक
रहस्य है सृष्टी का ।




उन बूंदों को

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

सुबह

शाम कितनी भी सुहानी हो
वो रात होने का घोतकहै ।
भोर कितना भी धुंधला हो
वो दिन होने की निशानी है ।


शाम कितनी भी चहल पहल हो
वो तन्हाई के करीब है ।
भोर कितना भी स्वच्छ हो
वो दुनियादारी की पहल है ।

घर

घर
जहाँ जाने में झिझकते नहीं हम ;
ही कोई संकोच ।
घर
जहाँ आने के लिए आमंत्रण
की जरुरत नहीं होती ।
घर
संसार में पनाह लेने की एक जगह ,
महकती खुशबू ,जानी पहचानी
सम्बन्धो का घेरा ,
एक सुकून ।
घर
मेरे न होने के खालीपन को
एक इंतजार से भरता हुआ ,
मेरी जरुरत
मेरा घर ।

मूक दर्शक

दरक रहा था
क्षण -प्रतिक्षण
दीवार मेरे मन की ,
मै व्यथित
चुपचाप
रक्त में शांत प्रवाह लिए
क्षीण दर्शक बना रहा
एक काव्य रचना
हाथ में लिए ।

अंह;

मै हूँ क्या
जैसे शरीर के ऊपर सिर
वैसे सिर के ऊपर 'मै '
कभी हल्का व
कभी भारी ।

शनिवार, 30 जनवरी 2010

मंचन

कही तो कुछ शेष है ,
हलकी ,धीमी व् शिथिल मंद -मंद
दबी पड़ी कही
अन्दर तक,
कुछ नहीं फिर भी बहुत कुछ शेष है ,

मन में दबी पड़ी ,बचपन की कल्पनाए ,
युवाकाल की प्रतिशोध की भावनाए ,
वर्त्तमान से अजेय रहने की
इच्छाए शेष है ,

शेष है अभी पूर्णता की परिभाषा,

रिश्तो के इमारत में दरार ,
राहों की रहस्यमयी भटकाव ,
अभी हार के बीच में
जीत की संभावनाए शेष है ,

मस्तिष्क के शिराओ का कसाव ,
चेहरे की फीकी मुस्कान ,
शेष है अभी आखों (मौन ) की भाषा ,
जीवन का मंचन शेष है
शेष का अवशेष में परिवर्तन
पूर्ण नहीं तो
अधिअंशत: शेष है ।

बहस

कई दिन से
बहस सिर्फ बहस
इस बात का
की सामने वाला
क्यों नहीं है मेरी
बात से सहमत

रविवार, 24 जनवरी 2010

जीवट

सारी दुनिया परेशान है ,
परेशान है जीने में ,मरने में ,
मरना उसे आता नहीं ,
और जीना उसे भाता नहीं
करते है जीने में ही मरने की कल्पना ,
और टोहते रहते है कब्र की दीवार ,
जिंदगी में भावनाओ में ,
यह सच है ,
जीने में कई बार मौत आती है ,
लेकिन मौत के बाद
जीवन ,
एक कही सुनी बात है ।

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

विरोध-(२)

व्यवस्थाओ के शिकंजे से जकड़ा ,
इस बंधन को तोड़ने को आतुर ,
पल-पल विकराल होती समस्याओ
से घिरा मन ,
व्यवस्था को तोड़ने के लिए ,
निकलता है घर से,
पाता है बाहर भीड़ ,
बह जाता है उसी में ,
बन जाता है रैली ,
उसकी सारी कुंठाए ,
विरोध ,शक्ति आ जाती है ,
एक झंडे व् बैनर तले ।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

अवलोकन

दोनों हमउम्र
एक ही माहौल में पले-बड़े
लगभग एक ही सी
उनकी दिनचर्या
कुछ बातों को छोड़ कर
एक दूसरे से सहमत
एक रात वें कर रहे थे
अपने sukh dukh का विश्लेषण
एक ने इसे जीवन कहा ,दूसरे ने इसे प्रपंच .

हकीकत

जिन्दगी में मैंने कुछ भी
बिगाड़ना नहीं चाहा
लेकिन जो बिगड़ गया
उसे संवारने की इच्छा भी नहीं हुई ,
ये मेरा भम्र है या
मेरी पैनी दृष्टि
मुझे बिगड़ा रूप ही
ज्यादा वास्तविक लगा .

बुधवार, 6 जनवरी 2010

प्रयास

उस बंद दरवाजे को खोलो ,
वह खुलेगा ,
वह वैसे बंद नहीं है ,
जैसे तुम्हारे हाथ ।