apna sach

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

अब नही

अब हम नहीं जाते
देवदरी ,राजदरी
वही जहाँ जंगल
अपनी हरी भरी हरीतिमा में
पक्षियों के कलरव में
पानी के झरनों में
कलकल बहती नदी के लहरों में
हमारे मन मस्तिष्क को
प्रकृति के साथ जोड़ते थे
हम मन्त्र मुग्ध हो के
देवदरी ,राजदरी या लखनियादरी में
चट्टानों पर बैठे
प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते
निश्छल मन को मानवीय संवेदनाओ
से ओतप्रोत पाते
इन्ही जंगलो से हमें ,जानवरों के बीच
मानवीयता का बोध होता

पर अब हम नहीं जाते
वहां डरते है जाने से
क्योकि
अब वह नक्सल प्रभावित भूभाग है
शतरंज के बिसात में खुद को एक
मोहरे की तरह इस्तेमाल से बचाना चाहते है
दहशत फैलाने के लिए
अपनी मौत से डरते है
भय ,आतंक में हक़ की लड़ाई
और इसमे एक निर्दोष की जान
पक्ष ,विपक्ष की दुविधा से बचना चाहते है

और यह जंगल जो
न तो फुलवा की आबरू को ठेकेदारों व
वन रक्षको से नहीं बचा सका
और न ही हमारे जवानो को
नक्सलियों से
अपनी सघन व विहड़ आकार में
चुपचाप देखता रहा
गुनाहगारो को आगोश में लिए

अब इसकी भयावहता से
डर लगता है
नीरव व सुनसान पड़ी
ख़ामोशी से डर लगता है
वहां फैली पाशविकता
से डर लगता है
खुद को बचाने के लिए
अब हम वहा नहीं जाते

2 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

बेहद संवेदनशील
अपने जंगल के लोगों में परायापन किसने बो दिया है कि हमारे जंगल हमारे लिए नहीं रहे.
जंगल का कानून ... दुनिया कहाँ जाएगी ?

संजय भास्‍कर ने कहा…

किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।