व्यवस्थाओ के शिकंजे से जकड़ा ,
इस बंधन को तोड़ने को आतुर ,
पल-पल विकराल होती समस्याओ
से घिरा मन ,
व्यवस्था को तोड़ने के लिए ,
निकलता है घर से,
पाता है बाहर भीड़ ,
बह जाता है उसी में ,
बन जाता है रैली ,
उसकी सारी कुंठाए ,
विरोध ,शक्ति आ जाती है ,
एक झंडे व् बैनर तले ।
1 टिप्पणी:
इंसान आज अपनी पहचान खोता जा रहा है. सिस्टम को बदलने की चाह धीरे धीरे सिस्टम के सामने हार जाती हैं और इंसान अपना वजूद खो देता है.
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