apna sach

शनिवार, 27 मार्च 2010

एक आस में

जिन्दगी भर ,एक आस में
काफी कुछ सह गए वो
कब वक्त बदलेगा
यह प्रश्न रहता
अब वक्त बदलेगा
यह दिलासा होती
उम्र के छोटे छोटे टुकड़ो में
संतुष्ट होते गए वो
दहलीज पार करते तो
हर कदम पर हमसाये होते
घर के अन्दर
उदास जिंदगी को खूटी पर टांग रहे होते
पसीने को तो हवा सुखा जाती
और प्यास को कुए का पानी
पर दिन भर घुमड़ते मन को
शाम में दिल से बहलाते रहे वो .

2 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

कमाल का ओबजर्वेशन है कविता, जो सिर्फ बाहर ही नहीं वरन भीतर गहरे तक झाँकने में समर्थ है.

संजय भास्‍कर ने कहा…

एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब