apna sach

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

माँ

वह जैसे घुप अँधेरे में
ढूढ़ लेती है दरवाजे ,
खिड़कियो के परदे हटा
कुछ रोशनी को ढूढ़ती है ,
अँधेरे को टटोलती ,
अँधेरे में चलती ,
अँधेरे में ही मिल जाते है उसे
माचिस दिए ,
खुद को एकाग्र कर
जगाती है जैसे दीये कि लौ ,
संयत और फिर सजग
समेटती है सबको अपने आँचल में ,
अपने मीठी बातो में ,
सुकून भरे पलों को
जैसे ले आती है वो अधेरो में भी ,
हम वैसे क्यों नहीं कर पाते
उजालो में भी

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

maa ka itna sunder kavita main chitran.dil ko choo gaya