apna sach

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

हकीकत से परे

सहारे के लिए साथ देने को
तत्पर रहती है कल्पनाएँ ,
बुझते दीये को जलाये
रहती है आशाएं ,
कुछ भी नहीं रहता है
साथ में जब
नीदं में स्वत: ही आ जाते है सपने ,


किसी होनी ,अनहोनी के बीच
उभरती है जब आंशका ,
मन में उभर आती है प्राथनाएँ
सृष्टि के एक एकांत में
मनुष्य के अंर्तमन का वार्तालाप
और इनको पूर्ण करने के लिए
ईश्वर का जन्म ,

घने जंगल में
भूखे शेर को सुनायी देती है जब आहट ,
उस आहट को ढूढने व पकड़ने के लिए ,
जाते शेर को
देखकर नहीं लगता कि ,
हम हकीकत कि दुनिया में
जी रहे है ।

कोई टिप्पणी नहीं: